
काश मै कवियत्री होती,
किसी का दर्द तो समझती,
समझती दुःख क्या है,
दुःख का अंत क्या है,
काश भावनाए
जो मुझमे होती,
पत्थारों के भी आँसुओ
का कारण समझ पाती,
पर शायद ऐसा बनाना
मुश्किल बहुत है,
आज की हवाओं
का ही ये असर है,
इतने लोग रोज मारे जाते पर,
अमीर महलों में जशन मनाते, "
अर्थ" देने को तो
नदियाँ भी है सूखती,
सडको पर खून की
नदिया अब है बहती,
पर कारवाँ आंखे बंद कर
बस चलता रहता,
आपस ही छुपे राज़,
कही कोई कुछ न कहता,
दिल कहाँ है, अब जो तडपे,
मशीने अब तो यहाँ है,
कोई कवि नही
जो अहसास करे,
इंसानों का नही
नर कंकालो का बाज़ार
है हर कही ही,
मै भी नही समझी
जो कोई समझता,
लिख पाती कोई कविता,
जो शायद भावना संचार करती
उन पत्थरों में जो सो चुके है कब से......
सीमा जी बहुत अच्छा लिखते हो अच्छा लगा पढकर बस एक बात पर गौर करना जो आप फोंट का कलर कर रहे हो थोडा डार्क कर लो ताकि आंखों पर जोर ना पडे बाकी लिखते तो बहुत ही अच्छा हो
ReplyDeleteएक आप वर्ड वेरिफिकेशन को भी हटा लें तो और भी अच्छा रहेगा बाकी जैसी आपकी मर्जी
ReplyDeleteMohan ji,
ReplyDeleteSujhaav ke lie bahut babhut dhanyawaad an usase bhi shukriya meri kavita ko padhne ka....
Apke sujhavo ka swaagat hai...
itna dimag ise likhne mein lagaya par kuch rythm nahi mil raha.. poem ka matlab kuch tuk to milna chahiye na
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