Wednesday, October 14, 2009

मापदंड


सुमध्या और मर्यादा की गृह्कथा,
है बिल्कुल विपरीत,
दोनों ने जन्म मापदंड,
लिया भिन्न - भिन्न खींच,
सुमध्या के घर फूल खिला,
खिले हर्षौल्लास के दीप,
मर्यादा के घर जो कली खिले,
खिलते सन्ग दबे पैरो के तले,
सुमध्या को जो लगे वर,
वही लगे मर्यादा को श्राप,
जैसे नन्ही कली ने किया हो पाप
मर्यादा के उपजा जो पुष्प,
संग लाया है कंटक सार,
उतरा फूल जो सुमध्या गोद,
भाग्य सबका दिया निखार,
जीवन का यह मापदंड बन आया है,
विधाता भी समझ पाया है,

हसरत

तेरे ना पहचानने का मुझे कोई भी गम नहीं,
अब तो आइना भी कहता है तुझे देखा है कही,

जिगर में हर गम छुपाया तो ये हालात हुए,
होता है मलाल क्यू ना दिल की बात कही,

यू ना बिखरते जो थाम लेते तुम हमको,
उस लम्हां तेरा वो फ़ैसला लगता था सही,

कितने ख्वाब इन दरियाओं में थे तैरते,
अब तो इन में कोई हसरत भी रही,

झुका लो नजरे अपनी बेअशक़ हो तो भी,
मेरी चाहत की कब्र है तेरे सामने यही.

Wednesday, September 30, 2009

शायरी

"आसमां बस गया है यू आँखों में,
जैसे दुनिया हो बंद सलाखो में,
बरसे क्या ये नैनो के काले बादल,
ढून्ड़ते खुशी के निशाँ राखों में "

रुख

कमरे की हवा आज बदली है फ़िर,
आकर मेरे पास से मुड जाती है,

जाने क्या पैगाम है कोई जो,
सनम के जानिब देने मुझे आती है,

बैचैनी का आलम बढ़ा ही जाता,
यादो की किताब बारहा खुल जाती है,

आग जो बुझी सी थी दबी दिल में,
हवा पास आके भड़का उसे जाती है,

सनम सोये होगे इसी हवा के पहलु में,
फ़िर क्यू आके बस मुझे ही तरसाती है...

Tuesday, September 29, 2009

गृहणी रिश्ते....

मेरी ज़िन्दगी का ग्रहण
ये रिश्ते,
इनके दिए जख्मो से
दुःख - दर्द अब रिसते
रिश्तो के भंवर में फ़सी,
ज़िन्दगी अब पुकारती है
मुझ को
" इसकी आग में
आहुति दे ख़ुद को"
संकरी गलियों से
गुजारी तंग जिंदगी,
खुले मैदान में
लहराना चाहती है अब,
पर जन्म से इन
गलियो का जाल चुना,
निभाते - वो तो
गले का जंजाल बना,
इसी जाल में फ़सी जिंदगी है,
अब तो ये
जाल ही जिंदगी है,
हर कोई ही तो
अपना मान चाहता है,
पर हम दे क्या,
हमारा कुछ है ही कहा,
जो हर कोई मांगता है,
अब ये जाल
बढती की जकडन,
भिचने लगी है
मेरी हर धड़कन,
देती है थकावट क्या करे?
क्यू चलके अब
सदा का आराम करे.....

Sunday, September 27, 2009

तुम्हारा साथ

काश तुम पास मेरे जाते,
जीवन के मेरे भेद समझ पाते,

आँखे क्यू सूनी तकती यहाँ वहां,
धुन्दती हमेशा कि तुम हो कहा ,
रवि, चन्द्र भी इन सम्मुख फीका पाते,

काश तुम पास मेरे जाते,
जीवन के मेरे भेद समझ पाते,

रंगत क्यू ढलती सी लगती,
गए दूर जब से मुरझाया करती,
खिले फूलों सी जब तुम छु जाते,

काश तुम पास मेरे जाते,
जीवन के मेरे भेद समझ पाते,

Saturday, September 26, 2009

कविता की चाह


काश मै कवियत्री होती,
किसी
का दर्द तो समझती,
समझती
दुःख क्या है,
दुःख का अंत क्या है,
काश
भावनाए
जो
मुझमे होती,
पत्थारों
के भी आँसुओ
का
कारण समझ पाती,
पर
शायद ऐसा बनाना
मुश्किल
बहुत है,
आज
की हवाओं
का ही ये असर है,
इतने
लोग रोज मारे जाते पर,
अमीर
महलों में जशन मनाते, "
अर्थ
" देने को तो
नदियाँ
भी है सूखती,
सडको
पर खून की
नदिया
अब है बहती,
पर
कारवाँ आंखे बंद कर
बस
चलता रहता,
आपस
ही छुपे राज़,
कही कोई कुछ कहता,
दिल कहाँ है, अब जो तडपे,
मशीने
अब तो यहाँ है,
कोई
कवि नही
जो
अहसास करे,
इंसानों
का नही
नर
कंकालो का बाज़ार
है
हर कही ही,
मै भी नही समझी
जो
कोई समझता,
लिख
पाती कोई कविता,
जो
शायद भावना संचार करती
उन
पत्थरों में जो सो चुके है कब से......