Wednesday, September 30, 2009

रुख

कमरे की हवा आज बदली है फ़िर,
आकर मेरे पास से मुड जाती है,

जाने क्या पैगाम है कोई जो,
सनम के जानिब देने मुझे आती है,

बैचैनी का आलम बढ़ा ही जाता,
यादो की किताब बारहा खुल जाती है,

आग जो बुझी सी थी दबी दिल में,
हवा पास आके भड़का उसे जाती है,

सनम सोये होगे इसी हवा के पहलु में,
फ़िर क्यू आके बस मुझे ही तरसाती है...

1 comment:

  1. nice lines ,,,, but only last two lines could understand... just kidding.... you are really a nice poetess. take care and keep it up

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