Sunday, September 27, 2009

तुम्हारा साथ

काश तुम पास मेरे जाते,
जीवन के मेरे भेद समझ पाते,

आँखे क्यू सूनी तकती यहाँ वहां,
धुन्दती हमेशा कि तुम हो कहा ,
रवि, चन्द्र भी इन सम्मुख फीका पाते,

काश तुम पास मेरे जाते,
जीवन के मेरे भेद समझ पाते,

रंगत क्यू ढलती सी लगती,
गए दूर जब से मुरझाया करती,
खिले फूलों सी जब तुम छु जाते,

काश तुम पास मेरे जाते,
जीवन के मेरे भेद समझ पाते,

6 comments:

  1. काफी अच्छा विचार है......ज़िन्दगी के अकेलेपन को काफी अच्छे से उजागर किया है....
    बधाई..

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  2. चिट्ठा जगत में आपका हार्दिक स्वागत है. सार्थक लेखन के लिए धन्यवाद.
    जारी रहें. शुभकामनाएं.

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    समाज और देश के ज्वलंत मुद्दों पर अपनी राय रखने के लिए व बहस में शामिल होने के लिए भाग लीजिये व लेखक / लेखिका के रूप में ज्वाइन [उल्टा तीर] - होने वाली एक क्रान्ति!

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  3. Shukriya Amit ji..... ap jaise mahanubhavo ki kripa rahi to lekhan me hum bhi kuch apne zazbaat byaan kar payenge..

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  4. कुछ शीतल सी ताजगी का अहसास करा गई आपकी रचना।

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