मेरी ज़िन्दगी का ग्रहण
ये रिश्ते,
इनके दिए जख्मो से
दुःख - दर्द अब रिसते
रिश्तो के भंवर में फ़सी,
ज़िन्दगी अब पुकारती है
मुझ को
" इसकी आग में न
आहुति दे ख़ुद को"
संकरी गलियों से
गुजारी तंग जिंदगी,
खुले मैदान में
लहराना चाहती है अब,
पर जन्म से इन
गलियो का जाल चुना,
निभाते - २ वो तो
गले का जंजाल बना,
इसी जाल में फ़सी जिंदगी है,
अब तो ये
जाल ही जिंदगी है,
हर कोई ही तो
अपना मान चाहता है,
पर हम दे क्या,
हमारा कुछ है ही कहा,
जो हर कोई मांगता है,
अब ये जाल
बढती की जकडन,
भिचने लगी है
मेरी हर धड़कन,
देती है थकावट क्या करे?
क्यू न चलके अब
सदा का आराम करे.....
Tuesday, September 29, 2009
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
"संकरी गलियों से
ReplyDeleteगुजारी तंग जिंदगी,
खुले मैदान में
लहराना चाहती है अब,
पर जन्म से इन
गलियो का जाल चुना,
निभाते - २ वो तो
गले का जंजाल बना,
इसी जाल में फ़सी जिंदगी है,
अब तो ये
जाल ही जिंदगी है,
बहुत खूब लिखा है सीमा जी...ख़ास कर यह पंक्तियाँ दिल के भीतर तक उतर गयीं हैं....
सच में आपकी कलम कमाल की है..