
जाने कैसे बदला मौसम आज,
यहाँ बाढ़ तो वहां है फुहार,
जीवन पूर्ण नष्ट हो गया,
कही नवोत्पत्ति की बहार.
कडकती बिजली का प्रकोप,
बीते खंडहर हुए समाप्त ,
नवरचना कार्य है उत्कृष्ट,
कि समय ही नहीं पर्याप्त.
रात्री पूर्ण शापित श्याम,
घूप काले बादलो के साथ,
वहां रात्री इतनी शीतल,
सितारे उतारे हो पदपाथ.
कड़कते सूर्य का भी प्रकोप,
झुलसी है अंतरात्मा तक भी.
सुनहरी हलकी किरणे कही,
पुलकित अंग प्रत्यंग सभी.
सान्झो में ऐसी अन्धली छाई,
यादों कि शाखों से पत्ते झरे.
ऐसी रंगभरी संध्या वहां,
कि सब उसके प्रेमी बने.
ऐ !'दिया भूमि' न हो कुंठित,
कर ऐसी सुबह की आशा.
बंजर धरा पर उपजे जीवन,
मनोदेवता न हो फिर निराश॥
बहुत ही भावपूर्ण निशब्द कर देने वाली रचना . गहरे भाव.
ReplyDeleteआपके लेखन ने इसे जानदार और शानदार बना दिया है....
ReplyDeleteबहुत खूबसूरत सुबह की आशा शब्दों को मनोहारी तरीके से पिरो कर की है अपने
ReplyDeleteसराहना के लिए शुक्रिया संजय और देव जी........
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