Thursday, April 15, 2010

मेरा सांझ बागीचा


भावनाओ से भरा है दिल
है उलझन क़ि कागज़ में
आज किसे उतारू
सैकड़ो ख्याल सैर पर है
ज़ेहन के बाग़ में
तो अब किसे बुलाऊं
नाराज़गी और प्यार वहाँ
गुफ्तगू में है लगे
जाने कौन किसे मना रहा
सूखे पत्तों के ढेर के पास
तन्हाई थी सुबकती
अब भला उसे कैसे मनाऊं
कहती
है आहट भी तंग
करती है, इस भीड़ को
कैसे दूर भगाऊं
गुस्सा जो बैठा था तख़्त में
उसे ख़ुशी जाने क्या
लगी
थी समझाने
वो था जो मानता था
ख़ुशी बेचारी बोले
कैसे अपनी याद दिलाऊं
गुस्सा तो पुराना करीबी है
सोचती हूँ उसे दूर से
ही नमस्ते कह जाऊं
अतिथि बन जो आता है
पर जाने का नहीं पता
ख़ुशी संग बाँधा है ताकि
जल्द से इसे भगाऊं
जलन और अपनत्व भी है
जो मेरे पीछे चले रहे
कहते है "दिया" सुनो
संग चलेंगे तो मिलेगा
साथी जो कही छूट गया

ओह! आपको एक से मिलाऊं
पड़ोस में जो मेरे रहता हैं
दर्द जो किरायेदार था
मेरे ही कमरे को दबोचे
मालिक बना घूमता
कहता जाऊँगा, जो मै
उसे यादों की रकम थमाऊं
इस सांझ के अँधेरे में
आज
ये कुछ ही मिल पाए
बताइए आप ही अब
इन मेहमानों को
क्या समझाऊं
ये आत्मा की ज़मीन मेरी
है कमरा दिल का भी
तो क्यूँ इन सभी को
रोज मुझे खत्म करने को
आपने यहाँ दावत पर बुलाऊं .........











4 comments:

  1. सुंदर शब्दों के साथ.... बहुत सुंदर अभिव्यक्ति....

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  2. वाह! बहुत सुन्दर...दिल को छू गई रचना!

    आभार इस प्रस्तुति का!

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  3. bahut khoob seemaji..........bahut andar tak smayee hui rachna.........

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