Tuesday, April 27, 2010

आपबीती


कह देती की मजे में बीत रही
है ये ज़िन्दगी मेरी
कैसे कहूँ की वक़्त काट रही।
हर मौसम कब आता जाता
नहीं होता अहसास
बताऊं क्या, कैसे बरखा भीगा रही।
आँखे बंद करू तो भी मुझे
रास्ता पहचान जाता
जाने कैसे मोड़ ज़िन्दगी दिखा रही।
अनजाने चेहरे भी भी अब तो
पहचाने लगते है
फिर क्यू अपनों की ही पहचान नहीं।
झोली हर दम भरी रहती
देने को प्रेम
क्यू किसी की इसे पाने में ललक नहीं।
हर किसी को मिली है जो
उसकी जगह हमेशा
मेरे दिल को भी मिलेगी छाया कही।
सागर से जा मिलती है
जब हर नदी
मिलेगी धारा आँसुओ की बही।
मतलब निकालते है लोग
जो मेरी बातों का
कोई तो सुनाता मेरे दिल की कही.........



Tuesday, April 20, 2010

मौसम की पहली बारिश


अहा! ये छप - छप सुनके मन
होने लगा यू प्रसन्न
मौसम की पहली बरखा आई
चेते थे जिसे कब से सारे जन
भोर होगी निराली ही
धुला होगा हर पत्ता - फूल
खिला होगा हरेक कण
मिट जाएगी लू की तपिश
शायद जाए मेरे क्रोध की गर्मी
जो भरे है मेरे मन
पक्षी करते होगे कुम्भ स्नान
कैसे सौभाग्यशाली
गंगा स्वयं आई उनके स्थान
हर कोना भीगा होगा
सूखा रहेगा कुछ भी
मुझ जैसे किसी और ने भी
किया होगा भीगने का जतन..


Friday, April 16, 2010

ग़मज़दा तन्हाई


दिल में कुछ घटता सा जा रहा ,

जब कोई हमसे मिलने आ जा रहा।


क्यों मिलके कोई दे जाता है गम,

जब ज़ख्म पिछला हो ताज़ा रहा।


जाने क्यू हो जाती है आँखे नाम,

क्या है जो कतरा कर बह जा रहा।


चाहत है भूल जाने की दुनिया को,

याद रखना इसे तो है सजा रहा.


तुम
जो चाहोगे तो मर भी जाएँगे,

अब तो मरना भी एक मज़ा सा रहा,


दूर रहते है वो, न हमे चाहते है,

फिर मिलना क्यू उन्हें भाता रहा।


संजीदा बन दिया उन्होंने हमे भी,

मेरी चुपी का क्यू उन्हें तकाज़ा रहा.....

मौसम के रंग




जाने कैसे बदला मौसम आज,
यहाँ
बाढ़ तो वहां है फुहार,
जीवन
पूर्ण नष्ट हो गया,
कही
नवोत्पत्ति की बहार.
कडकती
बिजली का प्रकोप,
बीते खंडहर हुए समाप्त ,
नवरचना कार्य है उत्कृष्ट,
कि
समय ही नहीं पर्याप्त.
रात्री
पूर्ण शापित श्याम,
घूप
काले बादलो के साथ,
वहां
रात्री इतनी शीतल,
सितारे उतारे हो पदपाथ.
कड़कते
सूर्य का भी प्रकोप,
झुलसी है अंतरात्मा तक भी.
सुनहरी हलकी किरणे कही,
पुलकित
अंग प्रत्यंग सभी.
सान्झो
में ऐसी अन्धली छाई,
यादों
कि शाखों से पत्ते झरे.
ऐसी
रंगभरी संध्या वहां,
कि
सब उसके प्रेमी बने.
!'दिया भूमि' हो कुंठित,
कर
ऐसी सुबह की आशा.
बंजर
धरा पर उपजे जीवन,
मनोदेवता हो फिर निराश







Thursday, April 15, 2010

मेरा सांझ बागीचा


भावनाओ से भरा है दिल
है उलझन क़ि कागज़ में
आज किसे उतारू
सैकड़ो ख्याल सैर पर है
ज़ेहन के बाग़ में
तो अब किसे बुलाऊं
नाराज़गी और प्यार वहाँ
गुफ्तगू में है लगे
जाने कौन किसे मना रहा
सूखे पत्तों के ढेर के पास
तन्हाई थी सुबकती
अब भला उसे कैसे मनाऊं
कहती
है आहट भी तंग
करती है, इस भीड़ को
कैसे दूर भगाऊं
गुस्सा जो बैठा था तख़्त में
उसे ख़ुशी जाने क्या
लगी
थी समझाने
वो था जो मानता था
ख़ुशी बेचारी बोले
कैसे अपनी याद दिलाऊं
गुस्सा तो पुराना करीबी है
सोचती हूँ उसे दूर से
ही नमस्ते कह जाऊं
अतिथि बन जो आता है
पर जाने का नहीं पता
ख़ुशी संग बाँधा है ताकि
जल्द से इसे भगाऊं
जलन और अपनत्व भी है
जो मेरे पीछे चले रहे
कहते है "दिया" सुनो
संग चलेंगे तो मिलेगा
साथी जो कही छूट गया

ओह! आपको एक से मिलाऊं
पड़ोस में जो मेरे रहता हैं
दर्द जो किरायेदार था
मेरे ही कमरे को दबोचे
मालिक बना घूमता
कहता जाऊँगा, जो मै
उसे यादों की रकम थमाऊं
इस सांझ के अँधेरे में
आज
ये कुछ ही मिल पाए
बताइए आप ही अब
इन मेहमानों को
क्या समझाऊं
ये आत्मा की ज़मीन मेरी
है कमरा दिल का भी
तो क्यूँ इन सभी को
रोज मुझे खत्म करने को
आपने यहाँ दावत पर बुलाऊं .........











Wednesday, April 14, 2010

यादों की बातें


वक़्त के झोले में दूंदते कुछ यादे हाथ आई,
कितनी ही पुरानी और कब से भूली भुलाई।

जाने कब स कोने में पड़ी थी गर्द में सब,
जीने की जद्दोजहद में कब धुल में समाई।

परख कर देखा तो धुन्ध्लकी सी लगी,
अपने असली रंग जाने कब से गवाई।

कुछ के रंग खुशनुमा से थे अभी भी,
जाने कितनी हंसी में थी वो तब रंगाई।

वो पल जब जिये थे ज़िन्दगी सी थी,
आज झोला भरने में जो मैंने गंवाई।

कुछ यादे सिंदूरी सी थी आज भी अपनी,
कितनी साँझों की सैर करके जो जुटायी।

एक बारगी साँसों में सौंधी खुशबु भर गयी,
निकाल कर देखा प्यार की सुखी कली पायी।

कभी उन्ही ताज़ा फूलो को पाने की खातिर,
मेरे लिए कभी दुनिया भी हुई थी पराई।

तजुर्बे के कागजों में लिपटी मिली कुछ,
किसी ने कई दिन मरहम थी पकड़ाई।

जुदाई के आँसुओ से स्याह भी काफी थी,
जो मैंने उस ढेर में ऊपर ही थी लगाई।

तन्हाई के नामे की तो कई परतें दिखी,
जिनसे हर तरफ कई सी जम आई।

कुछ डर और दर्द की स्याही लगी दिखी,
तन्हा रहने से बचने को उनमे कभी डुबाई।

ऐसे जाने कितनी वहाँ से निकलती रही,
आज जो मैंने आपको भीगी पलकों से पढाई.








Tuesday, April 13, 2010

मेरे रात के साथी


रात तारों से बतियाने का मौका मिल आया,
हर एक के हालात जानने का समाँ आया

मेरी तन्हाई में जो इकट्ठे शरीक हो आये थे,
उन्हें हाल--दिल अपना दिखाना रास आया

वो समझे थे दिल की काली रात घिरी जो है,
शायद उनके पहलू में अँधेरे का छटे साया

कहने लगे हर आंसू यू ही नहीं बह जाता,
सब सज के रात के दामन में हुए बेजाया

उनके होते भी दिल में सन्नाटा बिसरा रहा,
जान कर उन्होंने अधूरे चाँद को भी बुलाया

कोशिशे करते रहे रातभर वो मेरे ग़मज़दा,
पर रुकते कहा थे अश्क होने लगे थे बेहया

अब उन्हें कितने ज़ख्मी दिल के दाग दिखाती,
पास जाके देखा जब उन्हें भी तन्हा ही पाया

ये अकेले होने का गम शायद अब हो कभी,
होगे ये अपने तो जब ये ज़माना होगा पराया.